ब्राह्मणों के लिए क्यों जरूरी है यज्ञोपवीत
शुभा दुबे
प्राचीन तपस्वी सप्त ऋषि तथा देवगण कहते हैं कि यज्ञोपवीत ब्राह्मण की महान शक्ति है। यह शक्ति अत्यन्त शुद्ध चरित्रता और कठिन कर्तव्य परायणता प्रदान करने वाली है। यज्ञोपवीत न तो मोतियों का है और न स्वर्ण का। फिर भी यह ब्राह्मणों का आभूषण है। इसके द्वारा देवता और ऋषियों का ऋण चुकाया जाता है।
यज्ञोपवीत परम पवित्र है। प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज ही बनाया है। यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बंधन से छुड़ाने वाला और पवित्रता देने वाला है। यह बल और तेज भी देता है। इस यज्ञोपवीत के परम श्रेष्ठ तीन लक्ष्य हैं। सत्य व्यवहार की आकांक्षा, अग्नि के समान तेजस्विता और दिव्य गुणों की पवित्रता इसके द्वारा भली प्रकार प्राप्त होती है। ब्राह्मणों को चाहिए कि सदा यज्ञोपवीत पहनें और शिखा में गांठ लगाएं। बिना शिखा और बिना यज्ञोपवीत वाला जो धार्मिक कर्म करता है, वह निष्फल हो जाते हैं। यज्ञोपवीत न होने पर द्विज को पानी तक नहीं पीना चाहिए। जब बच्चों का उपनयन संस्कार हो जाये तभी शास्त्र की आज्ञानुसार उसका अध्ययन शुरू करना चाहिए। ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य यह तीनों द्विज कहलाते हैं क्योंकि यज्ञोपवीत धारण करने से उनका दूसरा जन्म होता है। पहला जन्म माता के पेट से होता है। दूसरा जन्म यज्ञोपवीत संस्कार से होता है।
यज्ञोपवीत धारण करते समय जो वेदारम्भ कराया जाता है, वह गायत्री मंत्र से कराया जाता है। प्रत्येक द्विज को गायत्री मंत्र जानना उसी प्रकार अनिवार्य है जैसे कि यज्ञोपवीत धारण करना। यह गायत्री यज्ञोपवीत का जोड़ा ऐसा ही है जैसा लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम, राधे-श्याम, प्रकृति-ब्रम्हा, गौरी-शंकर, नर-मादा का जोड़ा है। दोनों के सम्मिश्रण से ही पूर्ण इकाई बनती है।
यज्ञोपवीत संबंधी कुछ नियम
जन्म सूतक, मरण सूतक, मल-मूत्र त्यागते समय कान पर यज्ञोपवीत चढ़ाने में भूल होने के प्रायश्चित में उपाकर्म से, चार मास तक पुराना हो जाने पर, कहीं से टूट जाने पर जनेऊ उतार देना चाहिए। उतारने पर उसे जहां-तहां नहीं फेंक देना चाहिए वरन किसी पवित्र स्थान पर नदी, तालाब या पीपल जैसे पवित्र वृक्ष पर विसर्जित करना चाहिए। बाएं कंधे पर इस प्रकार धारण करना चाहिए कि बाएं पाश्र्व की ओर न रहे। लंबाई इतनी होनी चाहिए कि हाथ लंबा करने पर उसकी लंबाई बराबर बैठे। ब्राम्हण बालक का उपवीत 5 से 8 वर्ष तक की आयु में, क्षत्रिय का 6 से 11 तक, वैश्य का 8 से 12 वर्ष तक की आयु में यज्ञोपवीत करा देना चाहिए। ब्राम्हण का वसंत ऋतु में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में और वैश्य का उपवीत शरद ऋतु में होना चाहिए। ब्रम्हचारी को एक तथा गृहस्थ को दो जनेऊ धारण करना चाहिए क्योंकि गृहस्थ पर अपना तथा धर्मपत्नी दोनों का उत्तरदायित्व होता है।
Friday, 15 June 2012
ब्राह्मणों के लिए क्यों जरूरी है यज्ञोपवीत
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