यहां कई जन्मों से मिल जाती है मुक्ति - अमित मुखर्जी
आज हम ऐसी नगरी की बात करेंगे, जिसको खुद भोले शंकर
ने अपने त्रिशूल पर बसाया है। जहां सुबह की शुरुआत मदिर के घंटा-घडि़यालों के साथ होती
है। जहा का रस ही बनारस है। जी हाँ! हम बात देश की सबसे प्राचीन नगरी काशी,
जिसको पुराणों के अनुसार
कहा जाता है कि इसको भोले भण्डारी ने खुद माँ अन्नपूर्णा के लिये बसाया है। काशी में
विराजे बाबा विश्वनाथ स्वयं .....बाबा विश्वनाथ के काशी आने की कई पौराणिक कहानियां
है। आईये, आज सबसे पहले काशी की धार्मिक यात्रा से शुरुआत करते हैं। पौराणिक कहानियों के
अनुसार पर्वत राज की बेटी माँ अन्नपूर्णा के साथ जब भोले भण्डारी का विवाह हुआ तो माँ
ने विशेश्वर से अनुरोध किया कि हे नाथ! विवाह के बाद हम लोगों को हिमालय पर ही रहना
होगा। हिमालय तो हमारा मायका है। भोले नाथ ने जब इस बात को सोचा तो उनकों भी लगा कि
अब रहने के लिये किसी और स्थान का चयन करना होगा। तदोपरांत शिव ने काशी की कल्पना की
और सबसे पहले भगवान विष्णु को काशी भेजा। भगवान विष्णु ने इस नगरी को देख प्रभु से
कहा कि ये नगरी तो त्रिलोक्य से न्यारी है। फिर क्या था, बाबा काशी में विश्वनाथ
के रूप में हमेशा के लिये विराजमान हो गए। कहा ये भी जाता है कि भोले ने इस नगरी को
पृथ्वी से अलग त्रिशूल पर टिका रखा है। जिसकी वजह से यहां कभी प्राकृतिक आपदा नहीं
आ सकती। काशी, जिसका नाम ही स्मरण करने से मन पवित्र हो जाता है। इस नगरी में
केवल चारों ओर शिव ही शिव हैं लेकिन यहां के लोगों का पेट तो माँ अन्नपूर्णा भरती हैं।
भोले काशी में बाबा विश्वनाथ के रूप में विराजते हैं। बाबा के काशी में वास की सबसे
बड़ी कहानी माँ पार्वती से जुड़ी है और माँ पार्वती काशी में माँ अन्नपूर्णा के रूप
में विराजती हैं। बाबा विश्वनाथ के मन्दिर के कुछ ही दूरी पर माँ अन्नपूर्णा का भी
मंदिर स्थित है। कहा जाता है माँ की कृपा से काशी में रहने वाला कोई भी व्यक्ति भूखा
नहीं सोता। काशी में ऐसे कई मंदिर है। जिनका अपना-अलग माहात्म है। जैसे इसी नगरी में
प्राचीन माँ का भी दुर्गा मंदिर है। काशी की दक्षिणी सीमा पर जहा माँ दुर्गा स्वयं
प्रकट होकर काशी राज सुबाहु को काशी की रक्षा का वरदान दिया था जो आज माँ कुष्मांडा
के नाम से जानी जाती हैं। रूद्रावतार संकट मोचन के रूप में बजरंगबली भी विराजते हैं।
इसीलिये इस अद्भुत नगरी को मंदिरों की भी नगरी कहा जाता है।
ठंडाई, भंग, लस्सी
मां गंगा की लहरों
से सूरज की किरणों की पहली मुलाकात, मंदिरों से आती घंट की आवाज, श्लोकों की अनुगूंज
ही दिल की गहराइयों तक पहुंचती है और इसी से शुरू होती है सुबह-ए-बनारस। जिंदादिली
का भाव भरता यहां का खुलापन और अपनेपन से जुड़े दिलों के तार। सुबह से लेकर शाम तक
शब्दों और चाल में हंसी की बुनियाद। इस जीवन को पाना और जीना वास्तव में काशी की अलौकिकता
से ही जुड़ा है। जहां सुबह-ए-बनारस की ताजगी के साथ साहित्य व राजनीतिक चर्चा में वैचारिकी
को गति मिलती है। यही है काशी का असली स्वरुप। जिसे मुक्ति का भी धाम कहा जाता है।
हर-हर गंगे उसी शिव और गंगा को स्मरण करने का लोकमंत्र है। भारतीय संस्कृति में लोक
कल्याण की भावना सबसे ऊपर है। शिव उसके देवता हैं और गंगा उनकी चिरसंगिनी हैं। दोनों
मिलकर लोक कल्याण की धारा प्रवाहित करते हैं। बनारस उसका मुख्य स्थान है क्योंकि यहां
देवाधिदेव शिव और गंगा दोनों विद्यमान हैं। यहां हर-हर गंगे का जुमला लोक विश्वास से
जुड़ जाता है। यहां की संस्कृति में हर-हर गंगे कल्मष धोने का महामंत्र भी है। गंगा
की धारा जल का समुच्चय भर नहीं, जनगंगा का लोकवाही रूप भी है। बनारस की मस्ती, यहाँ के अल्हड़पन और
अलमस्त जीवन शैली, खान-पान का अपना-अलग ही अंदाज है जो जीवंत काशी का दर्शन कराता
है। यहां की ठंडाई का स्वाद लोगों के जीवन में मानों गहरा घुला है। बाबा भोले की नगरी
में ठंडाई के बिना खान-पान का आनंद ही नहीं। शिव भक्त अगर भांग-ठंडाई के सुरूर में
डूबे रहते हैं तो केसर, मलाई और पिस्ता-ठंडाई गर्मी में तन-बदन को शीतलता देती है। ठंडाई
का ये मजा कहीं और कहाँ। इस देशी पेय के आगे बाजार के सारे शीतल पेय भी बेकार हैं।
बनारस के हर गली-मोहल्ले में आपको ठंडाई की एक दुकान तो जरूर मिलेगी। दर्जनभर वेरायटी
वाले ठंडाई की और क्या खासियत है, इसको पीने वाला ही जान सकता है। काशी की ठंडाई की अपनी अलग पहचान
है। बाबा के भक्त तो मानों भांग-ठंडाई के दीवाने ही है। इसे भोलेनाथ का प्रसाद भी माना
जाता है मगर ठंडाई का सिर्फ एक ही रूप नहीं। इस देशी पेय को दूध, बादाम, पिस्ता, काजू और केसर दल के
साथ बनाया जाता है। अब यहाँ के बनारसी पान की अलग बात न हो तो शायद स्वाद अधूरा रह
जायेगा। बनारस की पहचान की एक और कड़ी में पान का नाम भी शुमार है। बनारस के चैक इलाके
की यूँ तो कई खासियतें है मगर इसकी गलियों की चर्चा के बिना चैक का जिक्र अधूरा रह
जाएगा। आज भी चैक से निकलने वाली हरेक गली की अलग पहचान है। बनारस के चैक में खान-पान
के अनूठे अंदाज का दर्शन होता है तो यहाँ के व्यवसायिक रुख का आंकलन भी आप कर सकते
हैं। चैक में आपकों दूध, मलाई से लेकर ठंडाई की कई किस्मों के स्वाद चखने को मिल जायेंगे।
यहाँ पर केसरिया लस्सी का स्वाद और उसे बनाने से लेकर परोसने तक का अंदाज मन को भा
जाएगा। भंग आज के समाज में भले ही नशे के सेवन के लिये किया जाता हो पर काशी में भंग
तो बाबा के भक्तों के लिये प्रसाद है।
काशी की गलियां और कचैड़ी
काशी की घुमावदार और
सकरी गलियों के बीच आज भी बसता है पुराना बनारस।
काशी की पहचान पूरे विश्व में गलियों के लिये भी है। हजारों साल पुरानी ये गलियां अपने-आप
में विधिधता में एकता का रंग समेटे हुए है। इन गलियों में विभिन्न भाषा-भाषी विभिन्न
क्षेत्रों से आये लोग भले ही बसते हो मगर सबकी संस्कृति एक ही बनारसी। इन बनारस की
सकरी गलियों से आप जब भी गुजरेंगे तो सुबह की पहली किरण के साथ ही लजीज व्यंजन की खुशबू
आपको मिल जाएगी। जिसे लोग कचैड़ी और जलेबी कहते हैं। जी हाँ! ये वही काशी का खान-पान
है जो हजारों वर्षों से अपने में काशी की संस्कृति को समेटे है क्योंकि यही सुबह-ए-बनारस
का नाश्ता। लोग अपनी दिनचर्या की शुरुआत मानो यहाँ की हींग की कचैड़ी से ही करना चाहते
हो। बनारस की पहचान यहाँ के बनारसी पानों और लस्सी की वजह से भी है जो विश्व पटल पर
अपनी अलग छाप छोड़ती है। का गुरु... का राजा... और मुह में हो मगही पान, यही है बनारस की पहचान।
अपना अलग मजा जो दूसरे शहरों से इसे अलग करता है। यहां पान बनारस की तहजीब से जुड़ा
है। दुनियां की सबसे पुरानी संस्कृति और जिन्दा शहर आज भी बेलौस और अपने पूरे अख्खड़पन
के साथ जीवन्त है। जहां पूरी दुनियां वक्त के साथ खान-पान और जीने का तरीका बदल दिया
वहीं महाकाल के इस शहर ने काल को भी ठेंगा दिखाते हुए खान-पान और अपनी जीवन शैली को
अब भी कायम रखा है। शायद यही इस शहर की धरोहर है।
उद्योग शिक्षा और बनारस
धार्मिक नगरी वाराणसी
प्राचीनकाल से ही शिक्षा का केंद्र रही है। आदि शंकराचार्य ने भी यही के विद्वान मंडन
मिश्र से शास्त्रार्थ कर उनकों पराजित करके ही देश में शिव की भक्ति का परचम लहराया
था और उनकों विश्वव्यापी पहचान मिली थी। आज भी उसी परम्परा का संवाहक है काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय। जहां ये नगरी परम्परा शिक्षा और संस्कृति से समृद्ध है वहीं इस नगर
की पहचान परम्परागत उद्योगों से भी जैसे बनारसी साड़ी और लकड़ी के खिलौने। दुनियां
का तीसरा और देश का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय बी.एच.यू. आज भी अपनी शिक्षा और परम्परागत
मूल्यों के लिये पूरे विश्व में जाना जाता है। महामना द्वारा स्थापित इस विश्वविद्यालय
ने देश को सैकड़ों वैज्ञानिक, राष्ट्रीय स्तर के राजनेताओ को दिया है। संस्कृत से लेकर इंजीनियरिंग
एवं मेडिकल तक की आधुनिक शिक्षा की पढ़ाई इस विश्वविद्यालय में होती है। करघों पर रेशम
के ताने गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है। यहां बनने वाली बनारसी साड़ी में कहीं राम
के हाथ है तो कहीं रहीम के। कहीं करघे अगर राम के हैं तो रेशमी तागों को बुनने वाले
हाथ रहीम के हैं जो इस शहर की पहचान है। यहां के प्राचीन उद्योगों में महत्वपूर्ण स्थान
रखने वाले लकड़ी के खिलौनों ने चाइनीज खिलौनों को भी मात दे रखी है। आज भले ही इन लकड़ी
के खिलौनों की मांग कम हो गयी है लेकिन काशी के पहचान को खिलौनें आज भी चार चाँद लगा
रहे हैं। इस नगरी की बात चाहे शिक्षा के क्षेत्र
में हो या प्राचीन उद्योगों के, काशी हमेशा से ही भारत की पहचान को पूरे विश्व में बिखेरते रहा
है। यही कारण है कि दुनियां की सबसे प्राचीन नगरियों में इस शहर की गिनती आज भी होती
है।
मुक्ति धाम
काशी मर्नायम मुक्ति
.....यानि काशी में प्राण त्यागने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। भोले शंकर की नगरी
काशी को इसीलिए मोक्ष की नगरी कहा जाता है। देश का एकमात्र ऐसा तीर्थ जहां की मान्यता
है कि मरने वालों को भोले शंकर खुद तारक मन्त्र देकर तारते हैं। धर्म और अध्यात्म की
नगरी काशी को देश की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है। यही नहीं! ये भी कहा जाता है
कि त्रिलोक्य से न्यारी इस नगरी को खुद भोले शंकर ने बनाया है। काशी मर्नायम मुक्ति
यानि काशी में मरने से लोगों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। पुराणों में कहा गया है
कि यहां मरने वाले लोगों का मुक्ति का मार्ग भोले शंकर निर्धारित करते है। ये है काशी
का मणिकर्णिका घाट जहां भोले भंडारी स्वयं विराजमान रहते हैं। कहा ये जाता है कि जिसकी
मृत्यु काशी में न हो लेकिन उसका शवदाह भी अगर इस महाश्मशान घाट पर होता है तो उसको
कई जन्मों की मुक्ति यहाँ मिल जाती है। गंगाधर
की जटाओ से निकली शिव प्रिय गंगा इस नगरी में उत्तरवाहिनी हो जाती है। कंकर-कंकर में
शंकर की नगरी काशी स्वयं में शिवमय है। इसीलिये मोक्ष मय भी है क्योंकि शिव ही सत्य
और जीवन का अंतिम सत्य भी मृत्यु है और मृत्यु के बाद कुछ है तो वो शिव ही है। इसीलिये
उन्हें काल से भी परे महाकाल कहा जाता है। यही तीनों लोकों से न्यारी काशी जो पृथ्वी
पर नहीं बल्कि शिव के शूलों पर है। सदा है सदा ही रहेगी अविनाशी काशी।
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