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Friday, 9 March 2018

किसी भी साधना पथ पर आध्यात्मिक विकास का चरम परमात्मा में विलीन होना हैं,परम चिरस्थायी आनंद तभी संभव हैं जब हमारे मन में किसी प्रकार का पाप नहीं होगा, विक्रम प्रताप सिंह

 
मुबंई। प्रताप फाउंडेशन के चेयरमैन विक्रम प्रताप सिंह से सतगुरु दर्पण के संपादक ने विशेष बातचीत की।जिसमें उनसे पूछा  कि मनुष्य के धरती पर आने का उद्देश्य क्या है। जीवन का सत्य क्या हैं।जबाब में उन्होंने कहा कि जीवन के उद्देश्य के संदर्भ में अधिकतर हमारी अपनी योजना होती है; किंतु आध्यात्मिक दृष्टि से सामान्यतः जन्म के दो कारण हैं । ये दो कारण हमारे जीवन के उद्देश्य को मूलरूप से परिभाषित करते हैं । ये दो कारण हैं। अनेकों लोगों से लेना देना लगा रहता हैं। जैसे जिसका जिस देश ,गांव, शहर मे जन्म होता हैं।उसका वहां से कुछ लेना देना रहता हैं।प्रारब्ध के सबके अपने- अपने संस्कार होते हैं। जिसकों पूरा करने के लिए धरती पर जन्म लेना पड़ता हैं।
उन्होंने  कहां कि  परमात्मा स्वरुप आध्यात्मिक गुरु से दीक्षा  लेकर परमात्मा से जुड़ जाना ही जीवन का असली सत्य हैं। साधन से साधना करके जीवन -मरण के बंधन से छुटकारा पा लेना  और एकरूप हो जाना मनुष्य का अंतिम ध्येय होता हैं।

उन्होंने कहां कि अनेक जन्मों में हुए हमारे कर्म एवं क्रियाआें के परिणामस्वरूप हमारे खाते में भारी मात्रा में लेन-देन इकट्ठा होता है । ये लेन-देन हमारे कर्मों के स्वरूप के अनुसार अच्छे अथवा बुरे होते हैं। कहां कि  हमारे जीवन की सर्व महत्वपूर्ण घटनाएं अधिकतर प्राब्धानुसार ही होती हैं, यही जीवन का सत्य है । इन घटनाआें में जन्म, परिवार (कुल), विवाह, संतान, गंभीर व्याधियां तथा मृत्यु का समय आदि अंतर्भूत हैं । जो सुख और दुःख हम अपने परिजनों को तथा परिचितों को देते हैं अथवा उनसे पाते हैं; वे हमारे पिछले लेन-देन के कारण होता है । ये लेन-देन निर्धारित करते हैं कि जीवन में हमारे सम्बंधों का स्वरूप, तथा उनका आरंभ और अंत कैसे होता हैं।

वर्तमान जन्म में हमारा जो प्रारब्ध है। वह वास्तव में हमारे संचित का मात्र एक अंश है। जो अनेक जन्मों से हमारे खाते में जमा हुआ है ।

हमारे जीवन में यद्यपि पूर्व निर्धारित इस लेन-देन और प्रारब्ध को हम पूरा करते भी हैं; तथापि जीवन के अंत में अपने क्रियमाण (ऐच्छिक) कर्मों द्वारा उसे बढाते भी हैं । जीवन के अंत में यह हमारे समस्त लेन-देन में संचित के रूप में जोडा जाता है । परिणामस्वरूप इस नए लेन-देन को चुकाने के लिए हमें पुनः जन्म लेना पडता है और हम जन्म-मृत्यु के चक्र में फंस जाते हैं।  
किसी भी साधना पथ पर आध्यात्मिक विकास का चरम है परमेश्‍वर में विलीन होना । इसका अर्थ है, हममें तथा हमारे सर्व ओर विद्यमान ईश्‍वर को अनुभव करना, जो हमारी पंचज्ञानेंद्रियों, मन तथा बुद्धि के परे है ।          उदाहरणार्थ, जब हम अपने सौंदर्य पर अधिक ध्यान देते हैं अथवा हमें अपनी बुद्धि अथवा सफलता का अहंकार होता है ।

साधना द्वारा हमारा जब समष्टि आध्यात्मिक विकास हो जाता हैं।  तब हम जन्म-मृत्यु के चक्रसे मुक्त हो जाते है । 

हममें से अधिकतर लोगों के जीवन के कुछ लक्ष्य होते हैं, उदाहरणार्थ डॉक्टर बनना, धनवान बनना और प्रतिष्ठा कमाना अथवा किसी विशिष्ट क्षेत्र में अपने राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करना । लक्ष्य जो भी हो, अधिकांश लोगों के लिए वह प्राय: एवं प्रमुखत: सांसारिक ही होता है । हमारी संपूर्ण शिक्षा प्रणाली इस प्रकार से विकसित की गई है कि हम इन सांसारिक लक्ष्यों का अनुसरण कर सकें । अभिभावक होने के नाते हम भी अपने बच्चों के सामने ये सांसारिक लक्ष्य रखकर उन्हें शिक्षित करते हैं, तथा ऐसे व्यवसायों के लिए प्रोत्साहित करते हैं जिनसे उन्हें हमसे अधिक आर्थिक लाभ मिले ।

किसी के मन में यह प्रश्‍न उभर सकता है कि इन सांसारिक लक्ष्यों का, जीवन के आध्यात्मिक ध्येय एवं पृथ्वी पर जन्म लेने के कारणों के साथ सामंजस्य कैसे हो सकता है ?

उत्तर बहुत ही सरल है । हम सांसारिक लक्ष्यों के पीछे इसलिए भागते रहते हैं कि हमें संतोष एवं आनंद (सुख) प्राप्त हो । सामन्यतः अप्राप्य ऐसे सर्वोच्च और चिरंतन सुख की अभिलाषा ही हमारे प्रत्येक कृत्य की अंगभूत प्रेरणा होती है । किंतु वास्तव में सांसारिक लक्ष्यों की पूर्ति होने पर भी प्राप्त सुख और संतोष अल्पकाल के लिए ही टिकता है । हम कोई अन्य सुख पाने का स्वप्न देखने लगते हैं ।

‘परम और चिरस्थायी सुख’ की प्राप्ति केवल साधना द्वारा ही संभव है, जो छः मूल सिद्धांतों पर आधारित है । सर्वोच्च श्रेणी के सुखको आनंद कहते हैं, जो ईश्‍वर का गुणधर्म है । जब हम ईश्‍वर से एकरूप हो जाते हैं तब हमें भी उस चिरस्थायी आनंद की अनुभूति होती है । इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने दैनिक जीवन में जो कुछ कर रहे हैं, वह छोडकर केवल साधना पर ही ध्यान केंद्रित करें । अपितु इसका आशय यह है कि सांसारिक जीवन के साथ साधना के संयोजन से परम और चिरस्थायी सुख की प्राप्ति संभव है। यही जीवन का सत्य है। 

संक्षेप में हमारे जीवन के लक्ष्य, आध्यात्मिक प्रगति के आशय से जितने अनुरूप होंगे, उतना ही हमारा जीवन अधिक समृद्ध होगा और उतना ही हमें कष्ट अल्प होगा। 

इसका प्राथमिक कारण है कि अधिकतर व्यक्तियों का आध्यात्मिक स्तर अल्प होता है । इसीलिए अनेकों बार हमारे निर्णय एवं आचरण से अन्यों को कष्ट होता है । साथ ही, वातावरण में रज-तम फैलाता है । फलस्वरूप नकारात्मक कर्म और लेन-देन का हिसाब बढता है । इसीलिए अधिकतर मनुष्यों के लिए वर्तमान जन्म की अपेक्षा आगे के जन्म दुखदायी होते हैं ।

यद्यपि विश्‍व ने आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति की है, तथापि सुख (जो हमारे जीवन का मुख्य ध्येय है) के संदर्भ में, हम पिछली पीढियों की अपेक्षा निर्धन हैं ।यही जीवन का सत्य है ।

हम सब सुख चाहते हैं; परंतु प्रत्येक का अनुभव है कि जीवन में दुख आते ही हैं । ऐसे में अगले जन्म में और भविष्य के जीवन में सर्वोच्च तथा चिरंतन सुख प्राप्त होने की निश्‍चिति नहीं है । जीवन का सत्य है, केवल आध्यात्मिक उन्नति और ईश्‍वर से एकरूपता ही हमें निरंतर और स्थायी सुख दे सकते हैं  जेडी सिंह सतगुरु धाम

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