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Friday, 15 June 2012

श्री स्वामी अड़गड़ानंद और उनकी श्रीमद् भगवदगीता की व्याख्या

श्री स्वामी अड़गड़ानंद और उनकी श्रीमद् भगवद  गीता की व्याख्या
डा0 सत्य नारायण दुबे ‘शरतेन्दु’

    adgadanandji_10गीता की जितनी भी व्याख्याएं की गई हैं, उनका सबको इकट्ठी कर दें तो भी गीता का अर्थ पूर्ण नहीं होता। ठीक उसी तरह जैसे किसी गंभीर जलयुक्त कूप से बहुत वर्षों तक असंख्या लोग पानी पीते रहें तो उसका जल घटना नहीं, वैसे का वैसा ही बना रहता है। इसी प्रकार असंख्य टीकाएं या व्याख्याएं करने या लिखने पर भी गीता वैसी की वैसी ही रहती है। उसके भावों का अन्त नहीं आता। क्या अनन्त की सीमा कोई खोज सकता है? नहीं, इसीलिए तो उसे अनन्त कहा गया है। गीता पर कुछ भी कहने वाले केवल अपनी बौद्धिक शक्ति का परिचय देते हैं। ‘‘राम चरित मानस’’ में तुलसी दास ने लिखा है-‘‘सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई।।’’
    भगवान श्रीकृष्ण समग्र हैं- ‘असंशयंसमग्रे माम’ गीता समग्र की वाणी है। इसीलिए गीता में सर्वश्व है। जो जिस दृष्टि से गीता को देखता है, गीता उसको वैसी ही दिखाई देने लगती है। ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाभ्यहम्’। भगवान कृष्ण के अविनाशी स्वरूप को देखने की इच्छा अर्जुन करते हैं। वे कृष्ण की दृष्टि से अतीव पवित्र थे। कृष्ण के निकटस्थ थे। अतः कृष्ण उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाने के लिए तैयार हो जाते हैं परन्तु भगवान की विशेष कृपा होने पर भी भक्त उनके असली रूप को देख सकता है। सो भी इन आंखों से नहीं। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं- ‘‘न तु मां शक्य से द्रष्टुमनेनैव स्व चक्षुवा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य में योग मैश्वरम्।।’ परन्तु मुझकों तू इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में निःसंदेह समर्थ नहीं है; इसी से मैं तुझे दिव्य अर्थात् अलौकिक चक्षु देता हूं। इससे तू मेरी ईश्वरीय योग शक्ति का देख।’

    भक्त को भगवान की कृपा चाहिए। बिना उनकी कृपा के कोई कुछ नहीं कर सकता। स्वामी अड़गड़ानंद ने भी गीता की व्याख्या ‘‘यथार्थ गीता’’ के रूप में की है। यह ग्रंथ युगानुकूल है और स्वामी जी की गीता की व्याख्या पूर्व व्याख्याकारों की अपेक्षा एकदम अभिनव वैज्ञानिक यथार्थोन्मुख है। यह कार्य बिना भगवान की कृपा के नहीं हो सकता था। इतना महान तार्किक, चिंतक; अलौकिक शक्ति की प्रेरणा के बिना कहां लिख सकता था ऐसी व्याख्या? निःसंदेह उन पर ईश्वर समान उनके गुरू परम पूज्य श्री परमहंस महाराज की कृपा हुई थी। बात सन् 1955 ई0 की है। उस समय 23 वर्षीय युवक श्री अड़गड़ानंद जी सत्य की खोज में सब कुछ मोह-माया छोड़कर निकल पड़े थे। वे ईश्वरीय प्रेरणा से ही स्वामी परमानंद की शरण में आये। परमानंद स्वामी का निवास चित्रकूट अनूसुइया सतना, मध्य प्रदेश के धने जंगल में रहा जो हिंसक जीव-जन्तुओं का निवास था। साधन हीन ऐसे निर्जन अरण्य में बिना किसी व्यवस्था के श्री परमहंस जी का निवास होने से यह स्पष्ट होता है कि वे सिद्ध पुरूष थे और उनको साधना पूर्ण होने पर सिद्धि प्राप्त हो चुकी थी। परमहंस इस बात को बहुत पहले से जानते थे कि एक महान शक्ति का नवयुवक यहां पधारेगा। इस दिव्य आभा मण्डित युवक को देखते ही वे समझ गये कि यह वही है, जिसके आगमन की बहुत दिनों से प्रतीक्षा थी।

    अड़गड़ानंद जी परमहंस महाराज की सुखद छाया में साधनारत रहे। लेखन में इनकी अभिरूचि न थी। फिर भी जो लिखा वह पुनः लिखा न जा सकेगा। अध्यात्म के जिस रहस्य के बारे में कहा, वह कोई कह न सकेगा। हमारा समाज भोग-विलास, ईष्र्या-वैमनस्य, राग-द्वेष, रूढि़यों के मकड़जाल मंे जल रहा है। ऐसे पथ विस्मृत समाज को आपने मार्ग दिखाया। रूढि़ग्रस्त अंधविश्वास से परिपूरित समाज को आपने असली रास्ता दिखाया। शंकाओं के अंधकार में पड़े लोगों को यथार्थ ज्ञान की ज्योति आपने दिखाया। अपने निवास आश्रम शक्तेषगढ़, मिर्जापुर के पावन पवित्र प्रकृति के अंक में साधना तथा लोक को एक नई दिशा देने में आप लगे हुए हैं। हजारों, लाखों भक्तों के प्राण स्वरूप स्वामी जी सब पर अमृत वाणी की वर्षा करते हुए सबके बंद नयनों पर पड़े मोह के परदे को विदीर्ण कर यथार्थ दर्शन कराते आ रहे हैं। परिणाम स्वरूप शक्तेषगढ़ सबके शंका, समाधान, सद्मार्ग दर्शन कराने का केन्द्र बन गया है।


    स्वामी जी ने बहुत कुछ लिखा है जो लिखा है सब में एक संदेश है। व्यवहार में लाने वाला संदेश। यदि आप उनको व्यवहार में नहीं लाते तो उनकी पूजा से क्या लाभ? स्वामी जी ने गीता की व्याख्या की। उनकी व्याख्या बार-बार समझने की चीज है और जब समझ में आ जाय तो उसका आचरण करना चाहिए। दैनिक जीवन में उसके ज्ञान को व्यवहार में लाना चाहिए। स्वामी जी ने यथार्थ गीता की भूमिका में लिखा है ‘‘शास्त्रकार ने स्वयं यज्ञ बताया, फिर भी आप कहते हैं कि विष्णु के निमित्त स्वाहा बोलना, अग्नि में जौ-तिल, घी का हवन करना यज्ञ है। उन योगोश्वर ने ऐसा एक शब्द भी नहीं कहा।’
    ‘क्या कारण है कि आप समझ नहीं पाते? बाल की खाल निकालकर रहने पर भी क्यों वाक्य विन्यास ही आपके हाथ लगता है? आप अपने को यथार्थ जानकारी से शून्य क्यों पाते हैं? वस्तुतः मनुष्य जन्म लेकर क्रमशः बड़ा होता है तो पैतृक धन-सम्पत्ति (घर, दुकान, जमीन-जायदाद, पद-प्रतिष्ठा, गाय, भैंस, यंत्र, उपकरण इत्यादि) उसे विरासत में मिलती है। ठीक इसी प्रकार उसे कुछ रूढि़यां, परम्पराएं, पूजा पद्धतियां भी विरासत में मिल जाती है। तैंतीस करोड़ देवी-देवता तो भारत में बहुत पहले गिने गये थे। विश्व में उनके अनगिनत रूप हैं। शिशु ज्यों-ज्यों बड़ा होता है, अपने माता-पिता, भाई-बहन, पास-पड़ोस में इनकी पूजा देखता है। परिवार में प्रचलित पूजा-पद्धतियों की अमिट छाप उसके मस्तिष्क पर पड़ जाती है। देवी की पूजा मिली तो जीवन भर देवी-देवी रटता है। कोई शिव तो कोई कृष्ण तो कोई कुछ पकड़े ही रहता है। उन्हें वह छोड़ नहीं सकता।’
    ‘ऐसे भ्रान्त पुरूष को गीता जैसे कल्याणकारी शास्त्र मिल भी जाय तो वह उसे नहीं समझ सकता। पैतृक सम्पदा को वह कदाचित छोड़ भी सकता है किन्तु इन रूढि़यों और मजहबी पचड़ों को नहीं मिटा सकता। पैतृक सम्पत्ति को हटाकर आप हजारों मील दूर जा सकते हैं किन्तु दिल-दिमाग में अंकित ये रूढि़गत विचार वहां भी आपका पिण्ड नहीं छोड़ते।’
    वास्तव में गीता एक शाश्वत सार्वभौम है। धर्म के नाम पर प्रचलित विश्व के समस्त धर्म ग्रन्थों में गीता का स्थान अद्वितीय है। स्वामी जी का कहना है कि गीता के आकर्षण ये प्रश्न हैं, इनका मूल आशय समाज को खो चुका है। उन्हें यदि कोई जानना चाहता है तो उसे यथार्थ गीता का अवलोकन, मनन और गुनन करना होगा-
1.    श्रीकृष्ण एक योगेश्वर हैं।
2.    आत्मा सत्य है।
3.    आत्मा और परमात्मा सनातन है।
4.    युद्ध अन्तःकरण की दो प्रवृत्तियां- दैवी, आसुरी।
5.    सनातन धर्म।
6.    युद्ध स्थान-मानव शरीर और मन तथा इन्द्रियां है।
7.    भगवान की प्रत्यक्ष जानकारी ज्ञान है।
8.    संसार के संयोग-वियोग से रहित अव्यक्त ब्रह्म का मिलन योग है।
9.    आत्म निर्भर होकर कर्म में लगना ज्ञान योग है।
10.    समर्पण के साथ कर्म में लगना निष्काम कर्म योग है।
11.    कृष्ण ने किस सत्य को बताया।
12.    यज्ञ
13.    कर्मयोग
14.    यज्ञ
15.    कर्म
16.    वर्ण
17.    वर्ण संकट
18.    मनुष्ण की श्रेणी
19.    देवता
20.    अवतार
21.    विराट दर्शन
22.    पूजनीय देव-ईष्ट आदि

    यथार्थ गीता में इन सभी के सम्बन्ध में बताया गया है। क्या बतलाया गया है, वह एक बार पढ़ने से समझ में आने वाली चीज नहीं। मनोयाग से पढ़ने, चिन्तन करने की आवश्यकता है और जब पूर्ण रूप से यथार्थ गीता का आशय आपकी समझ में आ जायेगा तो आप स्वयं में आनन्द रस का पान करने लगेंगे। उस आनन्द को व्यक्त नहीं किया जा सकता। लेखनी से लिखा नहीं जा सकता। ‘ज्यों गूंगे मीठे फल को रस अन्तर्गत ही भावैं।’ आपकी दशा उसी गूंगे जैसी हो जायेगी। उस आनन्द और ज्ञान को यथार्थ गीता की शिक्षा को आप अपने आचरणों में व्यक्त करने लगेंगे। फिर आपमें कोई मैल और कोई भ्रम शेष न रहेगा। तब आप अनुभव करेंगे यथार्थ गीता का चमत्कार।

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