जौनपुर।संसार एक रंगमचीय कला है।जहाँ चराचर जीव द्वन्दात्मक भूमिका मे लीलाधर के निर्देशन मे लीला कर रहे है। शुभ अरु अशुभ करम फलदाता।ईश्ववर एक है।लेकिन अनेक रूपो मे बरतता हुआ,अपनी माया का विस्तार करके सबको नचा रहा है।सब विकल है।सुख दुख लाभ हानि ,जय पराजय और जीवन मृत्यु की चपेट से।इस भवसिन्धु की लहरे इतना विकराल है कि उनके आघातो से जीवआत्माए छटपटा रही है,ढूँढती है,किनारा ,अन्धकार मे कहाँ मिले? यहीं अथाह संसार -सागर मन्थन की यौगिक प्रक्रिया साधक के मानसिक धरातल पर घटती है।जब मन और इन्द्रियो को समेटकर कोई पथिक पूर्णतः सद्गुरु के अधीन हो जाता है,तो संयमित मन और इन्द्रियो के परिणाम स्वरुप उसके अन्त:करण मे ही कच्छपावतार हो जाता है।क्रमागत साधनात्मक उपलब्धियो की विशिष्टयो मे प्रवेश करता हुआ,प्रगतिशील साधक भवसिन्धु -मन्थन के अन्तराल मे उस अमृत तत्व को प्रत्यक्ष पा लेता है,जिसकी अनूभूति तत्क्षण शाश्वत सत्ता मे लीन कर उसे सदा सदा के आवागमन से मुक्त कर देती है।लीलाधर की लीला सिमट जाती हैऔर स्वरुप निखरकर सामने आ जाती है।साधक के रोम रोम से ध्वनि उठने लगती है।संसार परिवर्तनशील है।कथानक अनेक है किन्तु मूल वस्तु एक है।ईश्वर सर्वशक्तिमान ,सर्वव्यापी और अन्तर्यामी है। परम पूज्य संत स्वामी अडगडानंद महाराज। साभार शंका समाधान
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