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Thursday, 12 October 2017

अपने स्वरुप को प्राप्त करने का यत्न ही अहिंसा

जौनपुर।सर्वत्र व्याप्त एक परमात्मा मे सबकी श्रद्धा  होनी चाहिए।संसार के सभी महापुरुष का मत एक है।भजन मानसिक होता है।आपके बगल मे बैठा व्यक्ति भी नहीं जान सकता है कि आप कब भजन कर रहे होते है।उस परमात्मा का परिचायक दो -ढाई अक्षर के किसी नाम का जप प्रत्येक श्वास पर होना चाहिए।यह नाम किसी भी  भाषा का हो सकता है,कुछ भी हो सकता है,शरत यह है कि उससे परमात्मा की सर्वव्यापकता का बोध हो,और साधन द्वारा चलकर उसी परमात्मा की प्राप्ति वाले किसी समकालीन महापुरुष की सेवा,उनके प्रति समर्पण,उन्हें गुरु,सद्गुरु या पैगम्बर कुछ भी उपाधि दे ले।इस विधि द्वारा चलकर अपने हृदय के भीतर निवास करने वाले उसी परमात्मा को विदित कर लेना,उसके लिए यत्न करना-बस इतना ही तो अहिंसा है।अपने स्वरुप को प्राप्त करने का यत्न अहिंसा है। संसार मे प्राप्ति वाले सभी  महापुरुषो के उपदेशो का सारांश बस इतना ही है।अहिंसा का स्थल एक है,धर्म की मान्यता भी  एक है।सतगुरु ही परमात्मा के धाम की कुन्जी है।साभार-शंका समाधान,स्वामी श्री अड़गडानन्दजी    जे डी सिंह

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