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Friday, 13 July 2018

परम सत्य का द्वार,

परम सत्य का द्वार

बुद्ध ने नास्तिकों के लिए धर्म दिया। इसलिए बुद्ध के पास जो लोग आकर्षित हुए, बड़े बुद्धिमान लोग थे। आमतौर से धार्मिक साधु-संतों के पास बुद्धिहीन लोग इकट्ठे होते हैं। जड़, मूर्च्छित, मुर्दा लोग इकट्ठे होते हैं।
बुद्ध ने मनुष्य-जाति की जो श्रेष्ठतम संभावनाएं हैं, उनको आकर्षित किया। और मानने पर नहीं, बल्कि जानने पर जोर दिया।

बुद्ध के पास नवनीत इकट्ठा हुआ चैतन्य का। ऐसे लोग इकट्ठे हुए जो और किसी तरह तो धर्म को मान ही नहीं सकते थे, उनके पास प्रज्वलित तर्क था। इसलिए बुद्ध दार्शनिक नहीं हैं, लेकिन बुद्ध के पास इस देश के सबसे बड़े से बड़े दार्शनिक इकट्ठे हो गए। बुद्ध अकेले एक व्यक्ति के पीछे इतना दर्शनशास्त्र पैदा हुआ, जितना मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी दूसरे व्यक्ति के पीछे नहीं हुआ। और बुद्ध के पीछे इतने महत्वपूर्ण विचारक हुए कि जिनकी तुलना सारी पृथ्वी पर कहीं भी खोजनी मुश्किल है।

कैसे यह घटित हुआ? बुद्ध ने महानास्तिकों को आकर्षित किया। आस्तिक को बुला लेना मंदिर में तो कोई खास बात नहीं, नास्तिक को बुला लेने में कुछ खास बात है।
बुद्ध वैज्ञानिक हैं, इसलिए नास्तिक भी उत्सुक हुआ। विज्ञान को तो नास्तिक ठुकरा न सकेगा। बुद्ध ने कहा, संदेह है, चलो, संदेह की ही सीढ़ी बनाएंगे। संदेह से और शुभ क्या हो सकता है! संदेह के पत्थर को सीढ़ी बना लेंगे। संदेह से ही तो खोज होती है। इसलिए संदेह को फेंको मत।

इस बात को समझना। जिसके पास जितनी विराट दृष्टि होती है, उतना ही वह हर चीज का उपयोग कर लेना चाहता है। सिर्फ क्षुद्र दृष्टि के लोग कांटते हैं। क्षुद्र दृष्टि का आदमी कहेगा, संदेह नहीं चाहिए, श्रद्धा चाहिए। काटो संदेह को। ‎लेकिन संदेह तुम्हारा जीवंत अंग है, काटोगे तो तुम अपंग हो जाओगे। संदेह का रूपांतरण होना चाहिए, खंडन नहीं। संदेह ही श्रद्धा बन जाए, ऐसी कोई प्रक्रिया होनी चाहिए।

गौतम बुद्ध का नाम संकीर्ण, सांप्रदायिक चित्त के लोगों को भयाक्रांत कर देता था। ‎
उस नाम में अंगार था। उससे भय पैदा हो जाता था। और भय तभी पैदा होता है जब तुम जो पकड़े हो, वह गलत हो। नहीं तो भय पैदा नहीं होता।‎ ‎
‎तुमने अगर सत्य को ही स्वीकार किया हो, तो तुम निर्भय हो जाते हो। सत्य निर्भय करता है। सत्य मुक्त करता है। ‎'और असत्य को पकड़ा हो तो तुम सदा भयभीत रहते हो कि कहीं सत्य सुनायी न पड़ जाए। कहीं ऐसा न हो कि कोई बात मेरी मान्यता को डगमगा दे। इसलिए सांप्रदायिक लोग कहते हैं कि सुनना ही मत, दूसरे की बात गुनना ही मत। दूसरे के पास जाना ही मत।

क्यों? इतना क्या भय है?
तुम्हारे पास सत्य है, तो तुम घबड़ाते क्यों हो?  तुम्हारा सत्य किसी की बात सुनकर हिल जाएगा? तुम्हारा सत्य किसी की बात सुनकर उखड़ जाएगा?
तो ऐसे दो कौड़ी के सत्य को क्या मूल्य दे रहे हो! जो किसी की बात सुनकर उखड़ जाएगा, वह तुम्हें जीवन के भवसागर के पार कैसे  ले जा सकेगा? जो सुनने से बिखर जाता है, क्या वह तुम्हारी मौत में तुम्हारा साथी हो सकेगा?‎

वह बिखरता इसीलिए है कि तुम्हारे भीतर संदेह छिपा है। तुम भी जानते हो कि सत्य तो यह नहीं है। तुम भी किसी तल पर पहचानते हो कि सत्य तो यह नहीं है। मगर इस बात को छिपाए हो, दबाए हो, अंधेरे में सरका दिया है। अचेतन मन में दरवाजे बंद करके ताला लगाकर डाल दिया है। लेकिन तुम जानते हो, ताला तुम्हीं ने लगाया है। 'तुम्हें पता है कि अगर सत्य की किरण आएगी, तो मेरी बात झूठ हो जाएगी। इसलिए सत्य की किरण से बचो। अपने अंधेरे को सम्हालो और सत्य की किरण से बचो।‎
लेकिन सत्य अभय करता है और असत्य भयभीत करता है।
- एस धम्मो सनंतनो‎
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