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Friday, 15 June 2012

गुरु कृपा से ही राष्ट्र खुशाल व संपन्न होगा

अशोक नाविक 

हर इंसान की अपनी एक सोच होती है। एक मुकाम होता है। लक्ष्य होता है। जीवन में उतार-चढ़ाव आता है। कभी खुशी है तो कभी गम भी है। दुःख है तो सुख भी है। जीवन है तो मरण है। कुछ लोग सिर्फ अपने व अपने घर-परिवार के बारे में सोचते हैं और उन्हीं के हित में कार्य करते हैं। जो सबके बारे में सोचे और सबके भलाई की बात करे, वास्तव में वही महान है।
जौनपुर के एक महान दार्शनिक अशोक कुमार नाविक की अगर हम बात करें तो उनकी सोच सबसे हटकर है। वे समूचे विश्व को सम्पन्न व खुशहाल देखना चाहते हैं। इसके लिए गुरू के प्रति समर्पण रखने की बात पर जोर देते हैं। उनका अपना निजी मत है कि गुरू वह विराट सत्ता है, जिसके छांव में भक्त पल-बढ़कर दुनियां की बागडोर को अपने हाथ में लेता है और राष्ट्र का संचालन करता है। देश की रक्षा करता है। देश की आन-बान-शान के लिए प्राणों को न्यौछावर कर देता है। असली गुरू वही है जो शिष्यों में एकता का पाठ पढ़ाये। राष्ट्रहित के लिए सब कुछ त्यागने के लिए भक्तों को नसीहत दे। परमात्मा का बोध तभी होगा, जब हम खुद को जानने की कोशिश करेंगे। गुरू रास्ता बताता है। यहां तक की उस सत्य नाम को जपाता है जिससे भगवान के दर्शन का रास्ता साफ होता है। बात मानने, न मानने की है। जो गुरू की बात को मानता है, उनके बताये हुए मार्ग पर चलता है, गुरू एक न एक दिन उसे अपने जैसा बना देते हैं। अगर देखा जाय तो जैसे राजनीति में कुर्सी को लेकर मारा-मारी होती है, वैसे ही आश्रमों में गद्दी को लेकर जंग छिड़ जाती है कि गुरू जी कब चोला छोड़े और हम गद्दी पर आसीन हो। विरला ही शिष्य ऐसा होता है जो गुरू के आदर्शों को जीवन में उतारता है। आत्मसात् करता है। आचरण की पवित्रता ही भक्त को बुलंदी पर पहुंचाता है। अगर कहीं से भी पथ से भटका तो कई जन्मों के लिए नरकगामी बन जाता है।
आज के परिवेश में लोग शिष्य कम बनना चाहते हैं। गुरू बनने की चेष्टा कुछ ज्यादा ही रखते हैं। ऐसे लोग कहीं के नहीं होते हैं। गुरू, गुरू ही होता है। शिष्य लाख जतन कर ले, गुरू कभी नहीं बन सकता। हां! इतना जरूर है, जब गुरू की कृपा हो जाय तो शिष्य को गुरू बनने में देर नहीं लगता। गुरू गोविन्द दोउ खड़े काके लागू पाय, बलिहारी गुरू आपनो गोविन्द दियो बताय। अर्थात गोविन्द से बड़ा गुरू है जिसने गोविन्द से साक्षात्कार करवा दिया। दर्शन की दृष्टि प्रदान करता है। दुनियां में जो पहले था, वह आज भी है, पर दिमाग पर धूल जमा है। जैसे दर्पण पर अगर धूल जमा है तो साफ करने पर तस्वीर साफ होने लगती है। वैसे ही दिमाग को साफ करने पर दुनियां की तस्वीर साफ हो जायेगी। सब कुछ अच्छा दिखने लगेगा। श्रृंगार रस से भी भक्ति रस का आनन्द लिया जा सकता है। बशर्ते हमारी सोच पवित्र हो। गोरी तू कर ले श्रृंगार, आई गवना की बारी, अबकी चूक माफ नहीं होगी, चुनर ली जायेगी उतार। श्रृंगार रस के लोग तो इसे कुछ और सझेंगे पर अध्यात्म के लोग यह समझेंगे कि आत्मारूपी शरीर तू खूब सज-संवर लें, सोलहों श्रृंगार कर ले और गुरू के चरण में चलकर वंदन कर और जीवन-मरण के बंधन से छुटकारा पा ले। नहीं तो यहीं चैरासी के धक्के खाते रहोगे। अध्यात्म के माध्यम से ही राष्ट्र सम्पन्न होगा। खुशहाली आयेगी। वर्तमान में राम, कृष्ण विद्यमान हैं। हम उन्हें देखते हैं पर पहचान नहीं पाते हैं। अगर गुरू चाहे तो साक्षात् दर्शन के साथ-साथ बात भी करवा सकते हैं।
अशोक नाविक कहते हैं कि शीश दिये जो गुरू मिले तो भी सस्ता ज्ञान। उन्होंने कहा कि गुरू के पास जाने पर तन-मन शुद्ध हो जाय। मन पुलकित होने लगे। अपने आपको भूल जाय। रोमांचित हो उठे। सुधि-बुध खो दे। अपने आपका ध्यान न रह जाय तो समझिये सही गुरू के पास पहुंचे गये। धर्म, मर्यादा, राजनीति, अनुशासन तथा राष्ट्रहित की कसौटी पर खरा उतरते हुए विश्व के सम्पन्नता पर जोर देते हैं कि अगर हर मानस की सोच सकारात्मक हो जाय तो हर इंसान को सम्पन्न बनने में जरा भी समय नहीं लगेगा। नाविक जिले के थानागद्दी क्षेत्र के गूलरघाट के मूल निवासी हैं। 01 अप्रैल, 1969 को इनका जन्म हुआ। बचपन से ही इनका संत-महात्माओं से लगाव रहा। अब ये खुद साधना के पथ पर चलकर दुनियां को एक नई दिशा देने की चाह रखते हैं वहीं देश का दशा भी बदलना चाहते हैं। परम पूज्य संत नारायण दत्त श्रीमाली जी जोधपुर, राजस्थान के शिष्य हैं। साधना के बारे में बताते हैं कि कुछ लोग ध्वनि सुनकर साधना करते हैं तो कुछ लोग त्राटक माध्यम से एक टक किसी चीज पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो कुछ लोग प्रकाश के माध्यम से साधना करते हैं। भजन, सिमरन भी साधना के माध्यम हैं।

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