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Friday, 15 June 2012

पाखंड खंडिनी पताका गाड दी थी स्वामी दयानंद ने

पाखंड खंडिनी पताका गाड दी थी स्वामी दयानंद ने
शुभा दुबे
    swami dayanandमूलशंकर (स्वामी दयानन्द का पूर्व नाम) एक सामान्य ब्राह्मण, सरकारी अधिकारी के पुत्र थे। 15/16 वर्ष की आयु तक उनका जीवन साधारण ग्रामीण बालकों की तरह अपने गांव टंकारा (मोरवी, काठियावाड़) में व्यतीत हुआ। तब कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिनसे उनके हृदय में ईश्वर और धर्म की वास्तविकता जानने की जिज्ञासा हुई। उसी की प्रेरणा से वे सच्चे साधुओं और योगियों की खोज में बिना किसी को बताए घर से निकल पड़े और कई वर्ष तक जंगलों और पर्वतों की खाक छानकर मथुरा में स्वामी विरजानंद जी के शिष्य बन गये।
    विरजानंद जी वैदिक साहित्य के प्रसिद्ध ज्ञाता थे। उनके पास दो-तीन वर्ष अध्ययन करके और गुरु दक्षिणा के रूप में वैदिक सिद्धांतों के प्रसार की प्रतिज्ञा करके वे देश भ्रमण को निकल पड़े। उस अंधकार युग में जबकि देश की समस्त जनता तरह-तरह की निरर्थक और हानिकारक रूढि़यों में ग्रस्त थी जिससे स्वामी जी को पग-पग पर लोगों के विरोध, विघ्न-बाधा और संघर्ष का सामना करना पड़ा। पर वे अपनी अजेय शारीरिक और मानसिक शक्ति, साहस और दृढ़ता के साथ अपने निश्चित मार्ग पर निरंतर बढ़ते रहे और अंत में अपने लक्ष्य की प्राप्ति में बहुत कुछ सफल हुए।
    अपने गुरु से वैदिक धर्म के प्रचार की प्रतिज्ञा करके और कितने ही स्थानों में भ्रमण करके स्वामी जी सन् 1866 के कुम्भ में हरिद्वार पहुंच गये। उनका विचार था कि छोटे-छोटे स्थानों में दो-चार व्यक्तियों को समझाते, फिरने की अपेक्षा कुम्भ में इकट्ठे विद्वानों और महात्माओं से धर्म चर्चा और विचार विनिमय करके उनको अपने विचारानुकूल क्यों न बनाया जाए? जिससे देशभर में एक ही बार में वैदिक सिद्धांतों की चर्चा फैल जाए। पर जब उन्होंने कुम्भ की अपार भीड़ और साधुओं के विशाल अखाड़ों को देखा तो एक बार तो उनका साहस टूटने लगा। वे विचार करने लगे कि इतने बड़े और मीलों तक फैले हुए समुदाय में अपनी बात कैसे रखूंगा? पर उसी रात्रि को स्वप्न में उनको प्रतीत हुआ कि कोई दैवी पुरुष आदेश दे रहे हैं। हिम्मत को मत छोड़, सब काम पूरा हो जाएगा। क्या सूर्य अकेला ही संसार के अंधकार को दूर नहीं कर देता?
    बस प्रातःकाल उठते ही उन्होंने अपने हृदय में नवजीवन का संचार होते अनुभव किया। उन्होंने अपने छोटे से निवास स्थान के आगे एक झंडे पर ‘पाखंड खंडिनी पताका’ लिख कर गाड़ दिया और अपने विचारों को व्याख्यान के रूप में प्रकट करने लगे। उस समय तक लोगों ने किसी संन्यासी के मुख से मूर्ति पूजा का विरोध, श्राद्धों का निराकरण, अवतारों में अविश्वास, पुराणों का काल्पनिक होना आदि बातें नहीं सुनी थीं। इसलिए इस दृश्य को विस्मयपूर्वक देख रहे थे। कुछ लोग इसे कलिकाल का एक लक्षण बता रहे थे। कुछ पंडित नामधारी स्वामी जी को नास्तिक की पदवी भी देने लगे थे। कुछ पंडितों और साधुओं ने स्वामी जी के विरुद्ध भाषण देना आरंभ कर दिया और वे उन्हें तरह-तरह की गालियां देने लगे। पर स्वामी जी अपने काम में संलग्न रहे। कई पंडित और साधु उनके स्थान पर वाद-विवाद करने के उद्देश्य से भी आते थे पर उनकी युक्ति युक्त बातों से निरुत्तर होकर चले जाते थे। यद्यपि वहां कोई उनका अनुयायी तो न बना पर उस धार्मिक जन समुदाय में एक प्रकार की हलचल मच गई और अनेक लोग धर्म की सच्चाई के संबंध में विचार करने लग गये।

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