जौनपुर।भारतीय संस्कृति के लिये चरित्र शब्द उतना ही महत्व रखता है जितना की स्वास। जैसे स्वास के बिना मानव मुर्दा है तो चरित्र के बिना आत्मा शक्ति हीन।चरित्र अर्थात् (चर +इत्र) चर अर्थात् आत्मा मे इत्र मतलब सद्गुणो की खूशबू भर जाय।गुणो और शक्तियो से ही व्यक्ति महान आत्मा,धर्मात्मा, और देवात्मा बन जाता है।चेतन रुप मे जिसके करम दिव्य अलौकिक कल्याणकारी और अनुकरणीय हो तो उनके जड़ चित्त भी मार्गदर्शक बन जाते है।वैज्ञानिक दिरिष्ट से पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के काल मे चार संधिया पडती है।इनमे मार्च व सितम्बर माह मे पड़ने वाली गोल संधियो मे वर्ष के दो नवरात्र पडते है।मेडिकल साइन्स कहता है कि इस काल मे रोगाणु आक्रमण की संभावना बढ जाती है।अतःइस समय शरीर और मन को शुद्ध स्वच्छ और पूर्णतः स्वस्थ रखने के लिये किया जाने वाला व्रत पूजा -पाठ हवन आदि प्रक्रिया ही नवरात्र है।तनिक विचार करे कि शरीर को शुद्ध रखने के लिए व्रत शुद्धि और सफाई तो रखते ही है परन्तु आत्मा जो इस शरीर का मालिक है उसकी रक्षक है उसके लिये हम कुछ नहीं करते क्योंकि आत्मा परमपिता भगवान शिव की संतान है। नवरात्र मे माँ दुर्गा की पूजा से साकारात्मक उरजा मिलती है। मन निर्मल होता है लेखक मारकन्डे हिमताज महाविद्यालय नेवढिया,जौनपुर से जुड़े है।
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